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वृद्धावस्था की कहानियाँ

गिरिराजशरण अग्रवाल

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1586
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है वृद्धों की मानसिकता पर आधारित कहानियाँ..

Vriddhavasth ki kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘बचपन के दिन भी क्या दिन थे....नभ में उड़ते तितली बन के.....’ उम्र् की तीसरी सीढ़ी पर पाँव रखते ही आदमी को रह-रहकर सताने लगती है बचपन और जवानी की वह मौज-मस्ती जब वह जिंदगी की हरी-भरी वादियों में झूमता-गाता-इठलाता किसी भी तूफान-बवंडर से टकरा जाने के लिए भरपूर बल और दमखम अपने तन-बदन से महसूस करता था। पर उम्र की आखिरी दहलीज के निकट वह आज बूढ़ों की जमात में शामिल हो गया है। अनायास उसके सोचने व काम करने की शक्ति में शिथिलता आने लगी है।

बैसाखियों के सहारे चलने वाला वह खुद को बहुत ही मजबूर और कमजोर इनसान समझने लगा है। उसके अपने परिवार के लोग भी उससे एक फालतू और बेकार की चीज की तरह व्यवहार करने लगे हैं। और यहीं से शुरू हो जाता है उसके व्यक्तित्व के विघटन का दौर। न केवल उसकी मानसिकता चुक जाती है वरन् तजुर्बों का एक ताबूत बनाकर रह जाता है जिसमें उसके बेटे-बेटियाँ, पोते-पोतियाँ तथा कथित आधुनिकता की कीलें ठोक देते हैं।
बूढ़ों की मानसिकता को रूपायित करने, उनकी दुविधाओं को चित्रित करने और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में उनकी पीड़ा को शब्द देने का ही एक महत्त्वपूर्ण प्रयास इन कहानियों में है।

क्योंकि वे बूढ़ें हैं।


सुकरात के संबंध में कहा जाता है कि वह बुढ़ापे में सलीके से मरने की कला जानता था। जब उसको विष का प्याला दिया जा रहा था तब उसके प्रिय शिष्य क्राइटो ने उससे कहा था कि यदि आप क्षमा माँग लें तो शासन आपको दोषमुक्त कर सकता है। इस पर सुकरात ने कहा था-क्राइटो, उस जीवन को बचाने का अर्थ भी क्या है, जिसको मैं जी चुका हूँ और जो अब समाप्त हो चुका है।

दार्शनिक जानता था कि जीवन में उसे जो कुछ करना था, वह कर चुका और विष का यह प्याला उसे मृत्यु की ओर नहीं, अनश्वरता की ओर ले जा रहा है। हुआ भी यही कि सुकरात मरकर भी सदा-सदा के लिए अमर हो गया। यह एक ऐसे बूढ़े की मृत्यु क्या है, जिसने विश्व के इतिहास पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। किन्तु समाज का हर बूढ़ा व्यक्ति सुकरात जैसा दार्शनिक नहीं होता।

हमारे समाज में बूढ़े व्यक्ति की जो समस्याएँ हैं, उनका समाधान उस विष के प्याले में नहीं, जो सुकरता को पीना पड़ा था। यहाँ तो बूढ़े व्यक्ति ऐसा विष पीते रहने पर विवश हैं, जो उन्हें मृत्यु की ओर नहीं बल्कि पीड़ाओं और समस्याओं की ओर धकेलता है। ये समस्याएँ उस प्रकार की हैं, जिनका जन्म सामाजिक और मानसिक पृष्ठभूमि में होता है।
वृद्धावस्था की सबसे पहली और सबसे बड़ी कठिनाई आदमी का अनुपयोगी हो जाना है। अनुपयोगिता का एहसास एक वृद्ध को जहां गतिशील सामाजिक जीवन से काटकर रख देता है, वही उसके सम्मुख सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करने की समस्या भी आ खड़ी होती है।

जब मैं किसी अवकाश-प्राप्त वृद्ध को आस-पास की किसी दूकान पर सुबह से दोपहर तक समाचार पत्रों की एक-एक पंक्ति पढ़ते देखता हूँ, साथ ही उसके माथे पर निराशा, चिन्ता, उदासी और टूटे अथवा कमजोर होते संबंधों की परछाइयाँ देखता हूँ तो मुझे उस मानव अनुपयोगिता का ध्यान आता है, जिसके रहते आदमी स्वयं को समाज की एक व्यर्थ इकाई के रूप में अनुभव करने लगता है। यह अनुपयोगिता उसे अपने ही परिवार में बड़ी सीमा तक अजनबी और पराया बनाने लगता है। यह वही परिवार है, वह जिसका सर्वोच्च सदस्य था, जहाँ उसके अधिकार सर्वमान्य थे और जहाँ उसका सम्मान, उसकी मान-मर्यादा सर्वाधिक सुरक्षित थी। अब इसी परिवार में वह अपनी सत्ता और अपने अधिकारों का हनन होते देखता है। समाज की एक उपयोगी इकाई से गिरकर अनधिकृत व्यक्ति बन जाने तक की वह पीड़ाजनक गाथा मुझे उस वृद्ध व्यक्ति की मुखाकृति पर दिखाई देती है, जिसके संबंध में मैंने ऊपर की पंक्तियों में संकेत किया है।

वृद्धावस्था की समस्याओं में कुछ तो ऐसी हैं, जिन्हें बूढ़े व्यक्ति अपने जीवन में मानसिक तौर पर स्वयं ही उत्पन्न कर लेते हैं। कुछ ऐसी है, जो युवा पीढ़ी द्वारा चाहे-अनचाहे पैदा हो जाती हैं। कुछ समस्याएं ऐसी है, जो हमारे समाज के वर्तमान स्वरूप कारण उत्पन्न हो जाती है। ये समस्याएँ चाहे जिस रूप में समान आई हों, किन्तु अपना अस्तित्व रखती है और वृद्धों को इससे अपनी अन्तिम साँस तक जूझना पड़ता है। कठिनाई यह है कि दो पीढ़ियों में आयु का अन्तर उनके मध्य एक ऐसा फासला बना देता है, जिसे पाटना कभी-कभी अत्यन्त कठिन हो जाता है। इस स्थिति में युवा पीढ़ी के साथ वृद्धों का एक मौंन संघर्ष चलता रहता है। युवा वर्ग उन्हें अनुपयोगी जानकर उनकी उपेक्षा करता रहता है जबकि वृद्ध अपने खोये हुये अधिकार को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहते है।

इस संघर्ष में सबसे बड़ी भूमिका अर्थतन्त्र के स्थानान्तरित हो जाने की है। अर्थतन्त्र पिता से छिन्न होकर पुत्र के हाथ में पहुँच जाता है तो बूढ़ा पिता स्वभाविक रूप से स्वयं को उन अधिकारों से वंचित अनुभव करने लगता है, जो उसे प्राप्त थे। किन्तु अपना महत्त्व बनाए रखने के लिए वह अधिकार-क्षेत्र में आई इस रिक्तता की पूर्ति अपने अनुभवों के माध्यम से करना चाहता है। यहाँ समस्या यह भी उत्पन्न होती है कि वृद्ध के अमूल्य अनुभव युवा पीढ़ी का मार्गदर्शन करने के लिए या तो पूरी तरह पर्याप्त नहीं होते अथवा फिर युवा पीढ़ी उन्हें ठीक उसी प्रकार स्वीकार करने में संकोच करती है। इस स्थिति में अनुभवी व्यक्तियों के नाते अपना महत्त्व बनाए रखने का वृद्धों का प्रयास पुन: विफल हो जाता है। बूढ़ा एक बार फिर टूटता है, एक बार बुढ़ापा उसे फिर चुनौती देने के लिए उसके समक्ष आ खड़ा होता है। इस जीवन नाटक में वृद्धि कई बार अपनी सन्तान से समझौता करने की स्थिति में सफलता की ओर बढ़ जाता है, जबकि उसके परिवार के अन्य सदस्य तथा उनके बच्चे समझौते की इस डोर को फिर तोड़ डालते थे और वह अनचाहे इस टूटन को स्वीकार करता रहता है।
एक युग था जब बुढ़ापा सम्मान का प्रतीक समझा जाता था।

तब वृद्ध अपने अनुभवों के कारण सर्वोच्च स्थान के अधिकारी समझे जाते थे, उनके निर्देशों की आवश्यकता अनुभव की जाती थी किन्तु अब परिस्थितियाँ भिन्न हो गई हैं। अब अनुभवों की यह पूँजी जीवन के पथ पर दूर तक उनका साथ नहीं देती। अब व्यक्ति को इस आधार पर जाँचा और परखा जाता है कि वह परिवार में परिवार के लिए कितना लाभदायक व उपयोगी जीव है। इसलिए हमारी सामाजिक व्यवस्था में अधिकांश ऐसे वृद्ध, जो किसी छोटी या बड़ी सम्पत्ति के स्वामी हैं, अपनी अन्तिन साँस तक उस सम्पत्ति पर अपना ही अधिकार बनाए रखते हैं ताकि उनकी उपयोगिता सिद्ध होती रहे। किन्तु कभी-कभी यह सम्पत्ति भी उनके लिए एक अभिशाप बन जाती है। कई बार उनके जीवित रहते ही परिवार-जनों द्वारा सम्पत्ति हड़पने की भूख उन्हें और कई प्रकार की विपदाओं में डाल देती हैं। सामाचार पत्रों के पृष्ठों के साक्षी हैं कि सम्पत्ति के स्वामी कितने की बूढ़े अपने ही परिवार-जनों द्वारा पीड़ित किए गए अथवा मार्ग को अवरुद्ध करने वाले पत्थर की तरह हटा दिए गए।

इसका अर्थ यह है कि सम्पत्ति को सँजोए रखने के दृष्टिकोण से भी वृद्धावस्था की समस्या का समाधान नहीं हो पाता वरन् समस्या कभी-कभी और अधिक उलझ जाती है। इस प्रकार के दृश्य संयुक्त परिवारों में प्राय: अधिक दिखाई देते हैं। लेकिन जहाँ बूढ़े एकान्त जीवन व्यतीत कर रहे हैं, वहां भी उनकी समस्याएं कम नहीं हैं। वे एक-दूसरे स्तर पर समाज में अजनबी बनकर जीने की समस्या से उलझे हुए हैं। ये समस्याएँ प्राय: उनकी मानसिकता से जुड़ी हुई होती हैं। जिस दृष्टिकोण, जिस चिन्तनधारा तथा जिस जीवन-पद्धति का निर्माण उन्होंने अपने यौवन में किया था, वे उससे तिल भर भी कटने अथवा अपने व्यवहार में तनिक भी परिवर्तन लाने के लिए तैयार नहीं होते। परिणामत: उनके जीवन तथा वर्तमान पीढ़ी के बीच टकराव पैदा हो जाता है। ऐसे व्यक्ति के अकेलेपन की भयानकता तथा निराशा और अधिक बढ़ जाती है। इन बूढ़ों की समस्या उनकी मानसिक कट्टरता से भी संबंधित है। फिर भी वे हमारी उपेक्षा के नहीं वरन् हमारी सहानुभूति के पात्र हैं, क्योंकि चुके हुए जीवन के लोग बदलाव की लचक से वंचित हो ही जाते हैं।

कई विकसित देशों ने बुढ़ापे की समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह बात स्वीकार कर ली गई है कि बच्चों और युवकों की तुलना में भविष्य का भय सबसे अधिक बूढ़ों को सताता है। भविष्य का यह भय ही उन्हें अपने परिवार या अन्य युवाओं से शंकित रखता है। यदि भविष्य के संबंध में बूढ़ों के मन में स्वाभाविक रूप से जाग्रत होने वाली आशंकाएँ समाप्त कर दी जाएँ तो उनकी बहुत-सी दुविधाएँ स्वयं समाप्त हो सकती हैं। कई विकसित देशों में इस ओर पहल की गई है तथा वैधानिक रूप से वृद्धों के भविष्य की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी राज्य ने अपने हाथ में ले लिया है। वहाँ अवकाश-प्राप्त वृद्धों के लिए विश्राम-गृह बना दिए गए हैं, जहाँ उन्हें जीवन की हर सुविधाएँ-खेल, मनोरंजन, वाचनालय आदि-उपलब्ध हैं। इस प्रकार ऐसे बूढ़े जो किन्हीं भी परिस्थितियों में अपने परिवार के व्यवहार से ऊब कर यहाँ आना चाहें, इन विश्रामघरों में अपने भविष्य को सुरक्षित समझ सकते हैं।

हमारे देश की सरकार ने इतनी सुविधाएँ तो नहीं जुटाईं, इतना भर किया है कि असहाय और बेसहारा बूढ़ों को वृद्धावस्था पेंशन देनी आरम्भ कर दी है। इस व्यवस्था का लाभ एक सीमा तक हुआ है, किन्तु संयुक्त परिवारों के वे वृद्ध जो निरन्तर ठुकराए जा रहे हैं, अब भी अपनी विशेष समस्याओं से ग्रस्त हैं।

वृद्धों की एक बड़ी संख्या हमारे समाज में ऐसी है, जो अवकाश-प्राप्त के बाद भी मानसिक और शारीरिक दृष्टि से काम करने के योग्य हैं, लेकिन जिस व्यवस्था में नवयुवकों को रोजगार के अवसर उपलब्ध न हों, वहाँ बूढ़ों के योग्य काम का मिलना कहाँ तक संभव होगा, हमें मानवीय दृष्टिकोण से इन समस्याओं पर विचार करना चाहिए और यह भी अनुभव करना चाहिए कि जिस व्यक्ति ने यौवन से बुढ़ापे की सीमा तक अपने अथक परिश्रम से इस समाज की सेवा की है, वह थकने और टूटने के बाद इतना असहाय क्यों हो जाता है ? क्या उसके इस दीर्घकालीन परिश्रम का ‘मुआवजा’ केवल यही था कि दो रोटी का सुख प्राप्त करता रहा और अब इस व्यवस्था में उसका कोई हिस्सा नहीं है। यह दृष्टि-कोण एक रोगी और पतनशील समाज का है, स्वस्थ समाज का नहीं। इस मोर्चे पर सरकार से लेकर परिवार के सदस्यों तक को संघर्ष करना है ताकि वृद्ध अवस्था में पहुँचकर अनुपयोगी समझे जाने वाले लोग अपने आपको, अपने जीवन को, अपने भविष्य को इस समाज के हाथों में सुरक्षित अनुभव कर सकें।

कुछ साहित्यकारों ने विवेक पूर्ण पद्धति से इस समस्या पर विचार किया है और बूढ़ों की मानसिकता को रूपायित करने, उनकी दुविधाओं को चित्रित करने वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में उनकी पीड़ा को शब्द देने का उपयोगी प्रयास किया है ताकि युवा पीढ़ी इस अनुपयोगी समझे जाने वाले जीव की मनोदशा को समझकर उसके साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार कर सके।

प्रस्तुत संकलन की कहानियाँ बूढ़ों के प्रति हमारी संवेदना को जगाती हैं और उनके प्रति हमारे व्यवहार का सही सन्दर्भ में एहसास भी दिलाती हैं। यदि इन कहानियों के माध्यम से हमारी सत्ता-व्यवस्था भी सक्रिय हो सके तो एक और बड़ी उपलब्धि होगी।

डॉ. गिरिराजशरण अग्रवाल

आँखमिचौनी


अमृत राय

खून कब का सूख गया, अब तो हड्डियाँ भी सिकुड़ चलीं। पीठ पर बड़ी-सी एक कूबड़ निकल आयी है। जाने कितने वर्षों से मौत दरवाजे पर दस्तक दे रही है मगर आती नहीं।
चेहरे पर झुर्रियों का एक जाल है, और हर झुर्री की अपनी अलग एक कहानी है। अस्सी साल एक लम्बी उम्र है और समय बेदर्दी से हल चलाया है।

कितने-कितने झटके और कैसी-कैसी सर्दी-गर्मी। जमाना हुआ कि ये सब एक-एक करके बुझ गये, आँखों की नींद जाती रही और रात एक अँधेरे सन्नाटे में बदल गयी, जिसका कहीं ओर-छोर नहीं। बस एक सर्द बिस्तर अपना और उस पर करवट होकर निढ़ाल पड़ा हुआ, मैले कपड़े की गठरी जैसा एक सूखा-सूखा मिरगुल्ला शरीर सारी रात यों ही बीत जाती है। कभी जरा-सी कुनमुनायी तो मालूम हुआ कि अभी जान बाकी।

लेकिन अपनी उस तोला भर जान की फिक्र उसे कितनी है ! उँगलियों के बीच कहीं इतनी-सी रेत और न खिसक जाय। रात-दिन उन्हीं सब छेदों का मुँह बन्द करती फिरती है। ठीक भी है। जवान आदमी के पास ढेरों जान है, जितनी चाहे लुटाये, जितनी मस्ती चाहे लुटाये, लेकिन जिसके पास अब यही दो-चार कतरे बच रहे हों उसे तो अच्छी तरह संचकर रखना ही होगा।

कहीं हवा न लग जाये ! कहीं पेट न फूलने लगे ! कहीं छाती न जकड़ जाय ! खिड़की बन्द है। रोशदान बन्द हैं। हवा पर नहीं मार सकती। भले, कमरे में एक घुटन है और एक गन्द, जो उसी घुटन की गंद है और घी तेल की गंद है और गुड़ की गन्ध है और सिरके-अचार की गन्ध है।


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